Friday 25 December 2015

छिपाके यार तबस्सुम में बेक़रारी रख


लफ्ज़ पोर्टल की 27वीं तरही में एक प्रयास


ऐ दिल हमारे बस इक इल्तिजा हमारी रख
ये राज़ राज़ रहे थोड़ी होशियारी रख

इन आसुंओं पे लगा बाँध टूट जाने दे
बहा दे बोझ ऐ दिल! यूँ न ख़ुद को भारी रख

ज़रा तो सब्र से ले काम चाँद आने तक
“छिपाके यार तबस्सुम में बेक़रारी रख”

तिरे लिये ही तो आया हूँ मयकदे में फिर
दिले-मरीज़ मेरी लाज अब की बारी रख

‘नहीं-नहीं’ वो लिखें गर तो हाँ समझ लेना
हिसाब में ये मुहब्बत के जानकारी रख

ये राह आम नहीं है गली मुहब्बत की
ज़रा संभाल के ये उम्र की सवारी रख

कुछ एक पल की मुलाकात में धड़कना क्या?
तबाह दिल मेरे इतनी तो इन्किसारी रख

ये फूल चीड़* के जंगल में अब नहीं मिलते
‘नकुल’ सँभाल के बचपन की याद प्यारी रख

Sunday 30 August 2015

झरने का साज़ जैसे घटा में लगा रहा


लफ्ज़ पोर्टल की 25वीं तरही में मेरी कोशिश


झरने का साज़ जैसे घटा में लगा रहा
पर्दे में चाँद शर्मो-हया में लगा रहा

मालूम था मुझे कि मुहब्बत क़ुसूर है
दिल फिर भी इस हसीन ख़ता में लगा रहा

सुनता रहा जो उसकी कहानी मैं रात भर
अपने अकेलेपन की दवा में लगा रहा

शब भर सता रहा था धुंआ कल सिगार का
सूरत बनाने तेरी हवा में लगा रहा

फुटपाथ सो गया था सजा कर थकावटें
बिस्तर पे बंग्ला डेढ़-सवा में लगा रहा

रस्ते में जो मिला था उसे अपना मान कर
मिट्टी का इक खिलौना, अना में लगा रहा

खेतों में फिर से काकभगोड़े उदास हैं
मौसम बदल बदल के जफ़ा में लगा रहा

नाराज़ मौसमों को बुलाता रहा किसान
‘मैं उस के साथ साथ दुआ में लगा रहा’

मैं खींचता इसे, ये कभी खींचता मुझे
रिक्शा सा ज़िन्दगी का ख़ला में लगा रहा

Saturday 4 July 2015

मुक़ाबले में फिर से हार हो गयी पगार की


लफ्ज़ पोर्टल की २४वीं तरही में मेरी कोशिश


मुक़ाबले में फिर से हार हो गयी पगार की
दिहाड़ियां ग़ुलाम हो के रह गयीं उधार की

जवान उस ग़रीब की हुई हैं जब से बेटियां
पड़ी है भारी ‘सौ लुहार की’ पे ‘इक सुनार की’

उस ऊंघती गली में दफ़अतन वो उनसे सामना
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”

सज़ा में है मिली हमें ये बेवफ़ाई दोस्तो
ख़ता वफ़ा की आदतन जो हमने बार-बार की

दुआ-सलाम, हाल-चाल पूछना तो छोड़िये,
अब उनकी इक झलक भी बात है कभी-कभार की

पहाड़ छोड़ कर ज़ुबान शह्र की तो हो गयी,
है रूह में महक मगर अभी भी देवदार की

इमारतों के मौसमों में बाग़बाँ भी क्या करे?
लगा रहा है बेबसी में क़ीमतें बहार की

घड़ी भी थक के रुक चुकी है, राह भी है सो गयी
कटेगी कैसे अब ‘नकुल’ घड़ी ये इंतज़ार की

Saturday 25 April 2015

ये ज़ख्मे दिल है इसकी दवाई हुई तो है


लफ्ज़ पोर्टल की 23वीं तरही में मेरी एक कोशिश

ग़ज़ल...

बंजर पड़ी ज़मीं की नपाई हुई तो है
उम्मीद काग़ज़ों ने बढ़ाई हुई तो है

फिर से मुआवज़े की कहीं घोषणा हुई
अफवाह फिर किसी ने उड़ाई हुई तो है

नारे चुनाव के वो दीवारों पे लिख गए
बस्ती में इस बहाने पुताई हुई तो है

हम भी हुए थे भीड़ में शामिल चुनाव की,
भर पेट खा लिया है कमाई हुई तो है

राई का जो पहाड़ बनाते थे मिल के रोज़
आख़िर उन आईनों की सफाई हुई तो है

अच्छा अगर बहुत हो तो होता है कुछ बुरा,
दिल्ली ने “आप” बीती सुनाई हुई तो है

दो खेत बेच कर है मिला फ्लैट शहर में
छत चू रही? है देखो चिनाई हुई तो है

बादल घिरे हुए हैं कि जंगल में आग है
काली घटा पहाड़ पे छाई हुई तो है

सूखे के बाद बाढ़ में डूबी हुई फ़सल
कीमत विकास की ये चुकाई हुई तो है

मौसम की करवटों से उठा है यही सवाल
कुदरत की वाट हमने लगाई हुई तो है

उस बाँध में डूबा है मेरा खेत भी कहीं
बिजली ये शहर की भी चुराई हुई तो है

फिर से नयी हुई है, रफ़ूगर! क़माल है
ऐसे क़मीज़ पर ये कढ़ाई हुई तो है

मैं शायरी में भूल गया हूँ इसे 'नकुल'
“ये ज़ख्मे दिल है इसकी दवाई हुई तो है”

Tuesday 17 March 2015

ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से


खुशामद में महारत से, उसूलों की तिजारत से
ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से

यहाँ मुजरिम भी मैं ही हूँ, है मेरी ही गवाही भी,
कहाँ मैं भाग कर जाऊं, अब इस दिल की अदालत से

तिरे बन्दों का कद मुझको नहीं दिखता है इक जैसा,
ख़ुदा क्या फायदा तेरे जहां की इस शबाहत से

चलाना ज़ोर फूलों पर बहुत आसान है साहिब
मैं डाली ख़ार वाली हूँ मुझे पकड़ो नफासत से

ये मेरे गाँव की मिट्टी से मुझको दूर करती है
मिरा दिल भर गया है नौकरी से, इस लियाक़त से

ये माना काबिले तारीफ़ हैं हर शोख़िया उनकी
दुखा दे दिल किसी का फ़ासिला हो उस शरारत से

न जाने क्यों वो सस्ते दाम पर बिकते हैं कमरों में
नहीं जो मंच पर थकते उसूलों की वक़ालत से

पारिन्दा शाम को फिर से क़फ़स में लौट आया है
न जाने कौन सा रिश्ता निभाता है हिरासत से

Saturday 7 March 2015

मैं दाल मखानी में घी थोड़ा मिला दूँ तो



आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर होली की तरही में मेरी कोशिश

नानी की रसोई की फिर याद करा दूँ तो
मैं दाल मखानी में घी थोड़ा मिला दूँ तो

फ़ाल्गुन का महीना है, होली का बहाना है
तू भूल ग़िले सारे, शिकवे मैं भुला दूँ तो

यह भांग भी होली पर झूमेंगी नशे में धुत,
ले नाम तिरा इसमें , जल थोड़ा मिला दूँ तो

कैसे हैं ये रासायन, चमड़ी ही जला डालें,
चल छोड़ गुलालों को, जल पान करा दूँ तो?

बगिया की महक तुझको फीकी न लगे कहना ,
गर बादे-सबा तुझको , घर उनका दिखा दूँ तो

चांदी की मिरी ज़ुल्फ़ें चमकेंगी घटा बन कर,
गर ग्रीस ज़रा सी मैं बालों पे लगा दू तो

ग़ज़लें ये मिरी शायद , फूलों सी महक जाएँ ,
इनको मैं अगर तेरी यादों से सजा दूँ तो

Friday 27 February 2015

जीत का मैंने हुनर जाना है


लफ्ज़ portal की 22 वीं तरही में मेरी एक कोशिश...


जीत का मैंने हुनर जाना है
हार उम्मीद का मर जाना है

आज़मा ले ये ज़माना मुझको
“आज हर हद से गुज़र जाना है”

रूह-दानी का मुक़द्दर तय है
टूट जाना है बिखर जाना है

आख़िरी ठौर चिता ही होगी
जाइये आप जिधर जाना है

दर्द सहने की हुई है आदत
चुटकुला सुन के बिफर जाना है

वक़्त के साथ बदल कर देखो
वक़्त को ख़ुद ही सुधर जाना है

मैं तबीबों का सताया हुआ हूँ
अब दवा दोगे तो मर जाना है

इक घडीसाज़ कहा करता था
वक़्त इक दिन ये ठहर जाना है

ख़ामख़ा ज़िद पे अड़े रहते हो
लौट आऊंगा मगर जाना है

मेरी तन्हाई बिलखती होगी
ये बहाना है कि घर जाना है

इसमें काँटों को सजा कर देखो
बाग़ दिल का ये संवर जाना है

Tuesday 17 February 2015

बचपना खोया हुआ फिर याद आता है मुझे


शेर बन के जब मेरा बेटा डराता है मुझे,
बालपन खोया हुआ फिर याद आता है मुझे ॥

कहकहे यारों के मेरे और टीचर की छड़ी,
इक पुराना चुटकुला अब भी रुलाता है मुझे ॥

खेल कर यारों के घर, फिर लौटना घर देर से,
अब भी चांटा माँ का पापा से बचाता है मुझे ||

हार कर इक बार फिर से खेलते थे हम कभी,
हारना अब खेल में क्यों चिड़चिड़ाता है मुझे ?

सांप सीढ़ी सी ये दुन्या, और लुड्डो सी ये रेस,
एक प्यादा अब भी रस्ते से हटाता है मुझे ||

Thursday 5 February 2015

सीढ़ियां चढ़ते हुए है कौन जो थकता न हो


क्या मिला है ज़िंदगी में जब तलक जज़्बा न हो?
सीढ़ियां चढ़ते हुए है कौन जो थकता न हो?

पेड़ से पक कर गिरे फल का मज़ा अपना ही है,
बस मसालों में पका फल क्यों भला खट्टा न हो

काटने और तोड़ने में फ़र्क़ तो रखिये जनाब,
ध्यान रखिये खिड़कियों से कांच ये छोटा न हो

लोन पर घर जो लिया किश्तों में दब के रह गए,
डर सताए अब के दस्तावेज़ में घपला न हो

नागफनियों से शहर के घर तो हैं सजवा लिये
रात -रानी गाँव में सूखी मिले, ऐसा न हो

खेलता है जिन खिलौनों से मेरा बेटा, 'नकुल' !
जो बनाता है इन्हें वो भी कहीं बच्चा न हो ।

Friday 16 January 2015

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई (तरही)



आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर, नववर्ष, 2015 के तरही मुशायरे में शामिल हुई मेरी ये ग़ज़ल

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देर कल दफ्तर से निकला, थी गली सोई हुई
याद फिर से आ गयी आवारगी सोई हुई

इक पुराना बक्स खोला, वक़्त मुस्काने लगा
चल पड़ी यादों की चाबी से घड़ी सोई हुई

रात भर ठंडी हवा से खिड़कियां हिलती रहीं,
कुछ वरक़ पलटे तो रो दी डायरी सोई हुई

हाथ हाथों में लिए अलफ़ाज़ ने एहसास के,
मुस्कुराने फिर लगी ये शायरी सोई हुई

ओढ़ कर शबनम की चादर, जनवरी की रात में
"मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई"

लौट कर आये हैं पोते साल भर के बाद घर,"
आज अलमारी के पीछे है छड़ी सोई हुई

गर छपी होती न वो झूठी ख़बर अख़बार में
यूँ नहीं इंसानियत दिखती कभी सोई हुई

कम्बलों की इक दुकां है आज जिस फुटपाथ पर
ठण्ड में कल इक भिखारन मर गयी सोई हुई

रूह को जाते हुए देखा नहीं जन्नत कभी
हाँ! मगर हो चैन से मिट्टी मेरी सोई हुई

Thursday 8 January 2015

क़लम सँभाल अँधेरे को जो लिखे रौशन


यही वक़ार के रखती है मरहले रौशन
"क़लम सँभाल अँधेरे को जो लिखे रौशन"

नहीं रहे जो ग़रीबी के सिलसिले रौशन
तो क्या रहेंगे चुनावों में वाअदे रौशन

वो जाँपनाह ग़रीबों के क्या रहे होंगे?
सवाल अब भी उठाते हैं मक़बरे रौशन

न पूछ हाल चराग़ों के दिल का क्या होगा,
जला के .खून उजालों से घर किये रौशन

पिता जी फ़ोन पे कहते थे हाल खेतों का
उगें जो इनमे ये टावर, नहीं रहे रौशन

तराशता है मुझे ठोकरें लगा कर भी,
खुदा तपा के करे नाम को मेरे रौशन

बता रही है रसोई की ये महक अब भी
थे माँ के हाथ से कितने वो ज़ायक़े रौशन

ये मसअले भी सियासत के हल कभी होंगे,
न मज़हबों की मशालों से गर रहे रौशन