लफ्ज़ मेरे रात भर मुझ से लड़े हैं |
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मेज़ के नीचे फटे कागज़ पड़े हैं, लफ्ज़ मेरे रात भर मुझ से लड़े हैं बाढ़ में कितने भी घर संसार डूबें, कागज़ी भाषा में ये बस आंकड़े हैं रुख़ हवा का अब चरागों से ही पूछो, रात भर तूफ़ां से ये तनहा लड़े हैं फ़लसफ़ा हमने दरख्तों से ये सीखा, फल हैं जिन पर उनपे ही पत्थर पड़े हैं हम कभी जिस खेत में मिल कर थे खेले, मिलकियत पे उसकी अब झगड़े खड़े हैं भीड़ हो जाते जो होते भीड़ में हम, मील का पथ्थर हैं सो तनहा खड़े हैं सब चुनावी काग प्यासे जा चुके हैं, कंकड़ों में रह गए सूखे घड़े हैं मुंतज़िर जिनके रहे हैं हम हमेशा, वो मनाएं हम अब इस ज़िद पे अड़े हैं है फकीरी में भी उनकी बादशाहत, जिनके दिल में सब्र के हीरे जड़े हैं बाग़बाँ से पूछियेगा हाल दिल का देखिये फिर बाग़ में पत्ते झड़े हैं खोदने होंगे 'नकुल' तुमको कुँए भी है बड़ी ग़र प्यास रस्ते भी बड़े हैं |
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Monday 10 November 2014
ग़ज़ल - लफ्ज़ मेरे रात भर मुझ से लड़े हैं
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