नज़्म कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो, कह पाना आसान नहीं है शायद इक सूखे पत्ते का माज़ी तो तुम या इक फूल कि जिसको भँवरा चूम न पाया कोई ख़्वाब,कि जिसे देखना नामुमकिन हो के जो परिन्दा कभी डाल पर झूम न पाया? लफ़्ज़ों में लिख पाने का इमकान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है सुब्ह घास पर जमीं हुईं कुछ ओस की बूंदें हवा का झोंका जो गर्मियों से बचा न पाया किसी अँधेरी सड़क का अंतिम लैंप पोस्ट हो या जो खिलौना कभी किसी को हँसा न पाया गली जो ख़ाली तो है मगर सुनसान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है किसी की बातों में जल्दबाज़ी में आ न जाना ये वक़्त इक दिन हमारे रिश्ते को नाम देगा हमें पता है कि हम कभी तो समझ सकेंगे कोई शजर आखिर इस दुपहरी को शाम देगा मगर पता है ये इतना भी आसान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है
Tuesday 5 September 2017
Sunday 3 September 2017
चाँद- एक छोटी सी नज़्म
नज़्म
ये चाँद है इक
रईस दादू
का एक बिगड़ा
हुआ सा पोता
चमक उड़ाता
फिरे जो शब भर
बस अपने दादू
की रौशनी की
नकुल गौतम
Subscribe to:
Posts (Atom)