आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर, नववर्ष, 2015 के तरही मुशायरे में शामिल हुई मेरी ये ग़ज़ल
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देर कल दफ्तर से निकला, थी गली सोई हुई
याद फिर से आ गयी आवारगी सोई हुई
इक पुराना बक्स खोला, वक़्त मुस्काने लगा
चल पड़ी यादों की चाबी से घड़ी सोई हुई
रात भर ठंडी हवा से खिड़कियां हिलती रहीं,
कुछ वरक़ पलटे तो रो दी डायरी सोई हुई
हाथ हाथों में लिए अलफ़ाज़ ने एहसास के,
मुस्कुराने फिर लगी ये शायरी सोई हुई
ओढ़ कर शबनम की चादर, जनवरी की रात में
"मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई"
लौट कर आये हैं पोते साल भर के बाद घर,"
आज अलमारी के पीछे है छड़ी सोई हुई
गर छपी होती न वो झूठी ख़बर अख़बार में
यूँ नहीं इंसानियत दिखती कभी सोई हुई
कम्बलों की इक दुकां है आज जिस फुटपाथ पर
ठण्ड में कल इक भिखारन मर गयी सोई हुई
रूह को जाते हुए देखा नहीं जन्नत कभी
हाँ! मगर हो चैन से मिट्टी मेरी सोई हुई