वक़्त के साँचे में ढलना चाहिए जब ज़ुरूरी हो, बदलना चाहिए मयकशी की क्या ज़रूरत दर्द में आंसुओं से काम चलना चाहिए काम तो मुझसे निकलवा ही लिया अब तुम्हारा सुर बदलना चाहिए तुम कहो तो हम फफक कर रो पड़ें, बस तुम्हारा दिल बहलना चाहिए गुल खिलाना भर नहीं गुलशन का फ़र्ज़ कोई भँवरा भी मचलना चाहिए आज कल मुझको नहीं पहचानते घास पर तुमको टहलना चाहिए ख़ाब करने हैं अगर पूरे नकुल ख़्वाहिशों का सिर कुचलना चाहिए नकुल
Thursday 29 March 2018
जब ज़ुरूरी हो बदलना चाहिए
Saturday 3 March 2018
इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आयेगी- होली की तरही
आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर आयोजित 2018 के तरही मुशायरे में मेरा प्रयास ग़ज़ल जुड़ी हर इक हमें उससे कहानी याद आएगी जो बक्से में रखी कोई निशानी याद आयेगी हमारा दम घुटेगा जब कभी शहरों की सड़कों पर हवा हमको पहाड़ों की सुहानी याद आएगी हम अब के गाँव लौटेंगे तो उन बचपन की गलियों में किसी नुक्कड़ पे खोयी शादमानी याद आएगी गली के मोड़ पर जिस घर की घण्टी हम बजाते थे वहाँ रहती थी जो बूढ़ी सी नानी, याद आएगी कुछ आलू काट कर खेतों में हमने गाड़ कर की थी महीनों तक चली वो बाग़बानी याद आएगी वो लड़की वक़्त से लड़कर अब औरत बन गयी होगी लड़कपन की वो पहली छेड़खानी, याद आएगी उसी छत से पतंगें इश्क़ की हमने उड़ाई थीं अजी बस कीजिये, फिर वो कहानी याद आएगी हमारे गाँव के रस्ते पर अब पुल बन गया लेकिन नदी, जिस में कभी बहता था पानी, याद आएगी बुढ़ापे के लिये अमरुद का इक पेड़ रक्खा है "इसे देखेंगे तो अपनी जवानी याद आएगी" गुज़रना उस गली से गर हुआ फाल्गुन महीने में हमें पिचकारियों की मेज़बानी याद आएगी
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