लफ्ज़ पोर्टल की 23वीं तरही में मेरी एक कोशिश
ग़ज़ल...
बंजर पड़ी ज़मीं की नपाई हुई तो है
उम्मीद काग़ज़ों ने बढ़ाई हुई तो है
फिर से मुआवज़े की कहीं घोषणा हुई
अफवाह फिर किसी ने उड़ाई हुई तो है
नारे चुनाव के वो दीवारों पे लिख गए
बस्ती में इस बहाने पुताई हुई तो है
हम भी हुए थे भीड़ में शामिल चुनाव की,
भर पेट खा लिया है कमाई हुई तो है
राई का जो पहाड़ बनाते थे मिल के रोज़
आख़िर उन आईनों की सफाई हुई तो है
अच्छा अगर बहुत हो तो होता है कुछ बुरा,
दिल्ली ने “आप” बीती सुनाई हुई तो है
दो खेत बेच कर है मिला फ्लैट शहर में
छत चू रही? है देखो चिनाई हुई तो है
बादल घिरे हुए हैं कि जंगल में आग है
काली घटा पहाड़ पे छाई हुई तो है
सूखे के बाद बाढ़ में डूबी हुई फ़सल
कीमत विकास की ये चुकाई हुई तो है
मौसम की करवटों से उठा है यही सवाल
कुदरत की वाट हमने लगाई हुई तो है
उस बाँध में डूबा है मेरा खेत भी कहीं
बिजली ये शहर की भी चुराई हुई तो है
फिर से नयी हुई है, रफ़ूगर! क़माल है
ऐसे क़मीज़ पर ये कढ़ाई हुई तो है
मैं शायरी में भूल गया हूँ इसे 'नकुल'
“ये ज़ख्मे दिल है इसकी दवाई हुई तो है”