Saturday 11 June 2016

तेरी हाँ में हाँ न मिला सका

1 दिसम्बर 2016 के दैनिक जागरण के अभिनव पृष्ठ पर मेरी इस ग़ज़ल को स्थान मिला। आदरणीय नवनीत जी की मुहब्बत मिली तो मेरी यह कोशिश सफ़ल हुई


न तो झूट मैंने कहा कभी न ही सच का साथ निभा सका
मेरी हार का है सबब कि मैं तेरी हाँ में हाँ न मिला सका

मैं था जिसका अरसे से मुन्तज़िर वो मिला हो जैसे इक अजनबी
न तो बात उस से हुई कोई न गले उसे मैं लगा सका

कभी पढ़ के इन को मैं रो लिया कभी रख के सीने पे सो लिया
न ये चिट्ठियां मैं जला सका न किसी नदी में बहा सका

न बयान उन से हुआ कभी न ही दर्द दिल का छिपा कभी
न रुमाल उन को दिखा सका न ही अश्क उन से छिपा सका

थी बनाई मैंने भी कश्तियां तेरे साथ जीने के ख्वाब की
जो बढ़ा गयीं मेरी तिश्नगी मैं वो बारिशें न भुला सका

ये हरे शजर हों कि बदलियाँ वो नदी वो बर्फ पहाड़ पर
हैं तुम्हारी लिक्खी इबारतें कोई पढ़ सका न मिटा सका