Friday 10 December 2021

कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक

 


कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक

किसी ज़िद्दी से आशिक़ की तरह शब भर जले दीपक


मुखालिफ़ हैं बुराई के सभी घर-घर डटे दीपक

"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"


है मिट्टी ही मगर गुज़री है कूज़ागर के हाथों से

कोई मूरत हुई तेरी तो कुछ से बन गए दीपक


न अंधेरे में शिद्दत है न परवाने जुनूनी हैं

भला किसके लिये अब इन हवाओं से लड़े दीपक


है दीवाली बहाना शहर से बच्चों के आने का

सजा रक्खे हैं नानी ने कई छोटे बड़े दीपक


हुई मुद्दत की शब भर घी पिलाती थी इन्हें अम्मा

लगें बीमार अब झालर की रौनक से दबे दीपक


किसी शाइर के मन में रात दिन पकते खयालों से

किसी को रौशनी देंगे ये भट्ठी में पके दीपक


भरे बाज़ार थे हर सू फिरंगी लालटेनों से

दिलेरी से पुराने चौक पर मुस्तैद थे दीपक









Wednesday 1 December 2021

जमी घास पर दोपहर तक है शबनम

 

जमी घास पर दोपहर तक है शबनम

कोई कर गया आँच सूरज की मद्धम


हरी पत्तियाँ क्यों मनाएँगी मातम

ये गिरने से पहले सुनायेंगी सरगम


है जादू पहाड़ों की ताज़ा हवा का

कि मीलों चलें फिर भी घुटता नहीं दम


कभी धूप आये कभी छाये कोहरा

ये मौसम कहीं ख़ुश्क है तो कहीं नम


जो बादल अभी सुस्त से दिख रहे हैं

ये सब जनवरी में दिखाएंगे दम खम


बहाना मिले आप मिलने जो आएं

मेरी आजकल चाय होती है कुछ कम


निकलते नहीं दिन ढले आप बाहर

सो छत पर नहीं दिख रहे शाम को हम


हिमाचल में हूँ इस बरस इत्तफाकन

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम


अभी वक़्त है बर्फ़ गिरने में थोड़ा

यहाँ जल्द होगा सफेदी का परचम


नकुल गौतम

Saturday 30 October 2021

हज़ल

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हज़ल



तेरे दीदार से दिल में अगर हलचल नहीं होती

तो शायद ब्याह कर के ज़िंदगी दंगल नहीं होती


मेरी ज़ुल्फ़ें यकीनन आज भी सलमान सी होतीं

तुम्हारे पास गर कोल्हापुरी चप्पल नहीं होती


मैं कितनी बार पिटने से बचा हूँ, शुक्र है इनका

बताओ क्या हुआ होता जो ये पायल नहीं होती


मेरी ये ज़िन्दगी शायद हुआ करती ज़रा रंगीन

अगर उस दिन पड़ोसन आँख से ओझल नहीं होती


उसे देखूँ मैं जब भी इश्क़ के दौरे से उठते हैं

वो मुझ से इश्क़ कर लेती अगर पागल नहीं होती


मुहब्बत भी पड़ोसी से ही की ऐ आलसी औरत

मुहब्बत में ज़रा चलती तो यूँ क्विंटल नहीं होती


अगर तुम वक़्त रहते वज़्न कुछ कंट्रोल कर लेतीं

तो यूँ दब कर तुम्हारी एक्टिवा घायल नहीं होती



अगर पिछले महीने ही नहा लेता मैं जानेजां

तो अब भी शहर की पानी की दिक्कत हल नहीं होती



मेरी ये शायरी जानम तुम्हारी ही बदौलत है

अगर तुम पढ़ लिया करतीं तो यूँ चंचल नहीं होती

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Friday 16 April 2021

नज़र आया तो वो दिल में उतरकर मार डालेगा

तीन साल पुरानी

एक गुमशुदा #ग़ज़ल


बिला दीदार यादों का बवंडर मार डालेगा

नज़र आया तो वो दिल में उतरकर मार डालेगा


तुम्हारा जनवरी का वाइदा तो ठीक है लेकिन

मुझे फ़ुर्क़त का ये ज़ालिम दिसम्बर मार डालेगा


तुम्हे पहला निवाला घूटते ही फिक्र है कल की

तुम्हारे आज को बेवज्ह यह डर मार डालेगा


हमें था शौक़ छाती तान कर हर जंग लड़ने का (तकाबूले रदीफ़)

किसे मालूम था वो तीर छिपकर मार डालेगा


ज़रा सा इल्म होने पर ख़ुदा खुद को समझता है

तुझे भी वक़्त आने पर मुकद्दर मार डालेगा


#नकुल

SheshDhar Tiwari जी के आदेश पर दो साल पहले

जैन साहब द्वारा याद दिलाने पर

आप सब की नज़्र

ऐसा भी वक़्त हमने गुज़ारा कहीं कहीं

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यादों का रात भर था सहारा कहीं कहीं

ऐसा भी वक़्त हमने गुज़ारा कहीं कहीं


भँवरे के साथ फूल भी डूबे हैं इश्क़ में

दिलचस्प हो रहा है नज़ारा कहीं कहीं


पक्का जो डूबने का इरादा हुआ मेरा

नज़दीक दिख रहा है किनारा कहीं कहीं


ये इश्क़ समुंदर है कि बारिश की बूँद है

मीठा कहीं कहीं तो है खारा कहीं कहीं


अच्छा हुआ कि इश्क़ दुबारा नहीं हुआ

दिल तो मचल रहा था हमारा कहीं कहीं


कुछ इस लिये भी राह लगी खुशनुमा हमें

तुमने सफ़र में हमको पुकारा कहीं कहीं

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Thursday 17 September 2020

क्यों करते हो बैर की बातें

 छोड़ हरम और दैर की बातें

क्यों करते हो बैर की बातें


हमको तो अच्छी लगती हैं
उसकी बे सिर पैर की बातें

अपनों का कुछ ध्यान नहीं है
करते हो बस ग़ैर की बातें

कहने सुनने को था ही क्या
मिल ही गये हम ख़ैर, की बातें

आज भी हम दुहरा लेते हैं
बाग़ीचे में सैर की बातें


Sunday 7 June 2020

ग़ज़ल हो गयी सो हो गयी



1212 1212 1212 112(22)
ऐसी कोई बह्र नहीं है
लेकिन ग़ज़ल हो गयी सो हो गयी


तुम्ही कहो रहें तो कैसे इत्मिनान से हम
कि खुल के सच भी कह सकें न जब ज़ुबान से हम

कई दिनों से इक ख़याल तक नहीं आया
पड़े हैं खाली इक किराये के मकान से हम

किसी ने मोड़ कर वरक हो जैसे छोड़ दिया
भुलाये जा चुके हों जैसे दास्तान से हम

उड़ान पर नहीं गये कि हम ख़लिश में थे
ये सोच कर कि क्या कहेंगे आसमान से हम

किसी को हो न हो उन्हें यक़ीन है हम पर
कई बरस तो ख़ुश रहे इसी गुमान से हम

ये ज़ख्मे दिल तुम्हे दिखायी तो नहीं देंगे
कई दिनों से हैं मगर लहू-लुहान से हम

हमें तो ख़ुद पे कुछ दिनों से ऐतबार नहीं
उमीद क्या करें वफ़ा की इस जहान से हम

चलो 'नकुल' सफ़र पे फिर कहीं निकल जायें
कि अब तो ऊब से गये हैं रूह-दान से हम