Thursday 19 October 2017

कुमकुमे हँस दिये, रौशनी खिल उठी


आदरणीय पंकज सुबीर sir के ब्लॉग पर दीपावली की तरही में मेरा प्रयास।


वक़्त बस का हुआ तो घड़ी खिल उठी 
रास्ते खिल उठे, हर गली खिल उठी

गाँव पहुँचा तो बस से उतर कर लगा 
जैसे ताज़ा हवा में नमी खिल उठी

वो हवेली जो मायूस थी साल भर 
एक दिन के लिए ही सही, खिल उठी

घर पहुँचते ही छत ने पुकारा मुझे 
कुछ पतंगे उड़ीं, चरखड़ी खिल उठी

छत पे नीली चुनर सूखती देखकर 
उस पहाड़ी पे बहती नदी खिल उठी

बर्फ़ के पहले फाहे ने बोसा लिया 
ठण्ड से काँपती तलहटी खिल उठी

चीड़ के जंगलों से गुज़रती हवा 
गुनगुनाई और इक सिंफ़नी खिल उठी

उन पहाड़ी जड़ी बूटियों की महक 
साँस में घुल गयी, ज़िन्दगी खिल उठी

मुझ से मिलकर बहुत खुश हुईं क्यारियाँ 
ब्रायोफाइलम, चमेली, लिली खिल उठी

थोड़ा माज़ी की गुल्लक को टेढ़ा किया 
एक लम्हा गिरा, डायरी खिल उठी

शाम से ही मोहल्ला चमकने लगा 
"कुमकुमे हँस दिये, रौशनी खिल उठी"

गांव से लौटकर कैमरा था उदास 
रील धुलवाई तो ग्रीनरी खिल उठी

फिर मुकम्मिल हुई इक पुरानी ग़ज़ल 
काफ़िये खिल उठे, मौसिकी खिल उठी

Saturday 7 October 2017

नहीं कभी



माना वो दौर लौट के आया नहीं कभी
हमने भी डायरी को जलाया नहीं कभी

यूँ तो किसी भी ग़म से मेरे ग़म भी कम न थे
बाज़ार में अगरचे सजाया नहीं कभी

रहती है अब उदास मेरे घर की क्रौकरी
फिर तुमकोे चाय पर जो बुलाया नहीं कभी

कुछ तो छुपा रहा है पसे अक़्स आइना
हमने तो कुछ भी इससे छुपाया नहीं कभी

ऐसा अगर है इश्क़ तो क्या ख़ाक इश्क़ है
कहते हैं बारिशों ने रुलाया नहीं कभी

कीचड़ में भी खिलें तो महकते हैं शान से,
फूलों ने पर ग़ुरूर दिखाया नहीं कभी

यूँ तो शरीफ़ लोग मिले शह्र में कईं
सच का किसी ने साथ निभाया नहीं कभी

मेरे लिए रुकी थी कईं बार ज़िन्दगी
मैंने ही अपना हाथ बढ़ाया नहीं कभी

कागज़ के उन हवाई जहाज़ों का क्या कुसूर
शिद्दत से हमने जिनको उड़ाया नहीं कभी

सहरा नहीं ये दिल है मिरा इंतज़ार में
पौधा यहाँ किसी ने लगाया नहीं कभी

शायद  ज़ुबां हमारी कभी लड़खड़ाई हो
लेकिन ज़मीर हमने गिराया नहीं कभी