Tuesday 17 March 2015

ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से


खुशामद में महारत से, उसूलों की तिजारत से
ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से

यहाँ मुजरिम भी मैं ही हूँ, है मेरी ही गवाही भी,
कहाँ मैं भाग कर जाऊं, अब इस दिल की अदालत से

तिरे बन्दों का कद मुझको नहीं दिखता है इक जैसा,
ख़ुदा क्या फायदा तेरे जहां की इस शबाहत से

चलाना ज़ोर फूलों पर बहुत आसान है साहिब
मैं डाली ख़ार वाली हूँ मुझे पकड़ो नफासत से

ये मेरे गाँव की मिट्टी से मुझको दूर करती है
मिरा दिल भर गया है नौकरी से, इस लियाक़त से

ये माना काबिले तारीफ़ हैं हर शोख़िया उनकी
दुखा दे दिल किसी का फ़ासिला हो उस शरारत से

न जाने क्यों वो सस्ते दाम पर बिकते हैं कमरों में
नहीं जो मंच पर थकते उसूलों की वक़ालत से

पारिन्दा शाम को फिर से क़फ़स में लौट आया है
न जाने कौन सा रिश्ता निभाता है हिरासत से

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