Tuesday 17 March 2015

ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से


खुशामद में महारत से, उसूलों की तिजारत से
ख़ुदा मेरी क़लम को दूर ही रखना सियासत से

यहाँ मुजरिम भी मैं ही हूँ, है मेरी ही गवाही भी,
कहाँ मैं भाग कर जाऊं, अब इस दिल की अदालत से

तिरे बन्दों का कद मुझको नहीं दिखता है इक जैसा,
ख़ुदा क्या फायदा तेरे जहां की इस शबाहत से

चलाना ज़ोर फूलों पर बहुत आसान है साहिब
मैं डाली ख़ार वाली हूँ मुझे पकड़ो नफासत से

ये मेरे गाँव की मिट्टी से मुझको दूर करती है
मिरा दिल भर गया है नौकरी से, इस लियाक़त से

ये माना काबिले तारीफ़ हैं हर शोख़िया उनकी
दुखा दे दिल किसी का फ़ासिला हो उस शरारत से

न जाने क्यों वो सस्ते दाम पर बिकते हैं कमरों में
नहीं जो मंच पर थकते उसूलों की वक़ालत से

पारिन्दा शाम को फिर से क़फ़स में लौट आया है
न जाने कौन सा रिश्ता निभाता है हिरासत से

Saturday 7 March 2015

मैं दाल मखानी में घी थोड़ा मिला दूँ तो



आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर होली की तरही में मेरी कोशिश

नानी की रसोई की फिर याद करा दूँ तो
मैं दाल मखानी में घी थोड़ा मिला दूँ तो

फ़ाल्गुन का महीना है, होली का बहाना है
तू भूल ग़िले सारे, शिकवे मैं भुला दूँ तो

यह भांग भी होली पर झूमेंगी नशे में धुत,
ले नाम तिरा इसमें , जल थोड़ा मिला दूँ तो

कैसे हैं ये रासायन, चमड़ी ही जला डालें,
चल छोड़ गुलालों को, जल पान करा दूँ तो?

बगिया की महक तुझको फीकी न लगे कहना ,
गर बादे-सबा तुझको , घर उनका दिखा दूँ तो

चांदी की मिरी ज़ुल्फ़ें चमकेंगी घटा बन कर,
गर ग्रीस ज़रा सी मैं बालों पे लगा दू तो

ग़ज़लें ये मिरी शायद , फूलों सी महक जाएँ ,
इनको मैं अगर तेरी यादों से सजा दूँ तो