Thursday 8 January 2015

क़लम सँभाल अँधेरे को जो लिखे रौशन


यही वक़ार के रखती है मरहले रौशन
"क़लम सँभाल अँधेरे को जो लिखे रौशन"

नहीं रहे जो ग़रीबी के सिलसिले रौशन
तो क्या रहेंगे चुनावों में वाअदे रौशन

वो जाँपनाह ग़रीबों के क्या रहे होंगे?
सवाल अब भी उठाते हैं मक़बरे रौशन

न पूछ हाल चराग़ों के दिल का क्या होगा,
जला के .खून उजालों से घर किये रौशन

पिता जी फ़ोन पे कहते थे हाल खेतों का
उगें जो इनमे ये टावर, नहीं रहे रौशन

तराशता है मुझे ठोकरें लगा कर भी,
खुदा तपा के करे नाम को मेरे रौशन

बता रही है रसोई की ये महक अब भी
थे माँ के हाथ से कितने वो ज़ायक़े रौशन

ये मसअले भी सियासत के हल कभी होंगे,
न मज़हबों की मशालों से गर रहे रौशन

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