लफ्ज़ पोर्टल की 25वीं तरही में मेरी कोशिश
झरने का साज़ जैसे घटा में लगा रहा
पर्दे में चाँद शर्मो-हया में लगा रहा
मालूम था मुझे कि मुहब्बत क़ुसूर है
दिल फिर भी इस हसीन ख़ता में लगा रहा
सुनता रहा जो उसकी कहानी मैं रात भर
अपने अकेलेपन की दवा में लगा रहा
शब भर सता रहा था धुंआ कल सिगार का
सूरत बनाने तेरी हवा में लगा रहा
फुटपाथ सो गया था सजा कर थकावटें
बिस्तर पे बंग्ला डेढ़-सवा में लगा रहा
रस्ते में जो मिला था उसे अपना मान कर
मिट्टी का इक खिलौना, अना में लगा रहा
खेतों में फिर से काकभगोड़े उदास हैं
मौसम बदल बदल के जफ़ा में लगा रहा
नाराज़ मौसमों को बुलाता रहा किसान
‘मैं उस के साथ साथ दुआ में लगा रहा’
मैं खींचता इसे, ये कभी खींचता मुझे
रिक्शा सा ज़िन्दगी का ख़ला में लगा रहा