ग़ज़ल
बादलों में दबा के रक्खा है
चाँद तुमने छिपा के रक्खा है?
आज भी माँ ने घर में कानिश पर
मेरा बचपन सजा के रक्खा है
रेडियो सुन कहाँ रहा हूँ मैं
आदतन बस लगा के रक्खा है
छोड़ देता मैं नौकरी लेकिन
क़र्ज़ ने चुप बिठा के रक्खा है
इसको तस्वीर भर न समझो तुम
फ्रेम लम्हा करा के रक्खा है
लड़खड़ाने लगा है पर्वत भी
बोझ कितना उठा के रक्खा है
इश्क़ भी आजकल के बच्चों ने
एक फ़ैशन बना के रक्खा है
दिल में रौनक बनाये रखने को
एक बच्चा छिपा के रक्खा है
जल्द तय है मेरा बिगड़ जाना
आपने सिर चढ़ा के रक्खा है
आँख माँ की टिकी है रस्ते पर
और चूल्हा जला के रक्खा है
खेत के सामने, पहाड़ी पर,
अब्र किसने टिका के रक्खा है
नकुल गौतम, नाहन