आदरणीय पंकज सुबीर sir के ब्लॉग पर दीपावली की तरही में मेरा प्रयास। वक़्त बस का हुआ तो घड़ी खिल उठी रास्ते खिल उठे, हर गली खिल उठी गाँव पहुँचा तो बस से उतर कर लगा जैसे ताज़ा हवा में नमी खिल उठी वो हवेली जो मायूस थी साल भर एक दिन के लिए ही सही, खिल उठी घर पहुँचते ही छत ने पुकारा मुझे कुछ पतंगे उड़ीं, चरखड़ी खिल उठी छत पे नीली चुनर सूखती देखकर उस पहाड़ी पे बहती नदी खिल उठी बर्फ़ के पहले फाहे ने बोसा लिया ठण्ड से काँपती तलहटी खिल उठी चीड़ के जंगलों से गुज़रती हवा गुनगुनाई और इक सिंफ़नी खिल उठी उन पहाड़ी जड़ी बूटियों की महक साँस में घुल गयी, ज़िन्दगी खिल उठी मुझ से मिलकर बहुत खुश हुईं क्यारियाँ ब्रायोफाइलम, चमेली, लिली खिल उठी थोड़ा माज़ी की गुल्लक को टेढ़ा किया एक लम्हा गिरा, डायरी खिल उठी शाम से ही मोहल्ला चमकने लगा "कुमकुमे हँस दिये, रौशनी खिल उठी" गांव से लौटकर कैमरा था उदास रील धुलवाई तो ग्रीनरी खिल उठी फिर मुकम्मिल हुई इक पुरानी ग़ज़ल काफ़िये खिल उठे, मौसिकी खिल उठी।
Thursday 19 October 2017
कुमकुमे हँस दिये, रौशनी खिल उठी
Saturday 7 October 2017
नहीं कभी
माना वो दौर लौट के आया नहीं कभी हमने भी डायरी को जलाया नहीं कभी यूँ तो किसी भी ग़म से मेरे ग़म भी कम न थे बाज़ार में अगरचे सजाया नहीं कभी रहती है अब उदास मेरे घर की क्रौकरी फिर तुमकोे चाय पर जो बुलाया नहीं कभी कुछ तो छुपा रहा है पसे अक़्स आइना हमने तो कुछ भी इससे छुपाया नहीं कभी ऐसा अगर है इश्क़ तो क्या ख़ाक इश्क़ है कहते हैं बारिशों ने रुलाया नहीं कभी कीचड़ में भी खिलें तो महकते हैं शान से, फूलों ने पर ग़ुरूर दिखाया नहीं कभी यूँ तो शरीफ़ लोग मिले शह्र में कईं सच का किसी ने साथ निभाया नहीं कभी मेरे लिए रुकी थी कईं बार ज़िन्दगी मैंने ही अपना हाथ बढ़ाया नहीं कभी कागज़ के उन हवाई जहाज़ों का क्या कुसूर शिद्दत से हमने जिनको उड़ाया नहीं कभी सहरा नहीं ये दिल है मिरा इंतज़ार में पौधा यहाँ किसी ने लगाया नहीं कभी शायद ज़ुबां हमारी कभी लड़खड़ाई हो लेकिन ज़मीर हमने गिराया नहीं कभी
Tuesday 5 September 2017
नज़्म कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो, कह पाना आसान नहीं है शायद इक सूखे पत्ते का माज़ी तो तुम या इक फूल कि जिसको भँवरा चूम न पाया कोई ख़्वाब,कि जिसे देखना नामुमकिन हो के जो परिन्दा कभी डाल पर झूम न पाया? लफ़्ज़ों में लिख पाने का इमकान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है सुब्ह घास पर जमीं हुईं कुछ ओस की बूंदें हवा का झोंका जो गर्मियों से बचा न पाया किसी अँधेरी सड़क का अंतिम लैंप पोस्ट हो या जो खिलौना कभी किसी को हँसा न पाया गली जो ख़ाली तो है मगर सुनसान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है किसी की बातों में जल्दबाज़ी में आ न जाना ये वक़्त इक दिन हमारे रिश्ते को नाम देगा हमें पता है कि हम कभी तो समझ सकेंगे कोई शजर आखिर इस दुपहरी को शाम देगा मगर पता है ये इतना भी आसान नहीं है कुछ तो हो तुम, लेकिन क्या हो सच कहना आसान नहीं है
Sunday 3 September 2017
चाँद- एक छोटी सी नज़्म
नज़्म
ये चाँद है इक
रईस दादू
का एक बिगड़ा
हुआ सा पोता
चमक उड़ाता
फिरे जो शब भर
बस अपने दादू
की रौशनी की
नकुल गौतम
Saturday 12 August 2017
दिल मगर अब भी है धौलाधार में
खो गया हूँ शहर की रफ़्तार में
दिल मगर अब भी है धौलाधार में
घर चलाता हूँ मैं ख़ुद को बेचकर
फन मेरा टिकता नहीं बाज़ार में
अब वो नुक्कड़ भी नहीं पहचानता
बैठते थे हम जहाँ बेकार में
उस गली में फिर कहाँ जाना हुआ
दिल जहाँ टूटा था पहले प्यार में
यूं हकीकत खाब पर भारी पड़ी
हम उलझ कर रह गए घर बार में।
घूम आते थे हम अक़्सर मॉल पर,
अब कहाँ वो बात है इतवार में
मुस्कुराने में अभी कुछ देर है
मैं अभी उतरा नहीं किरदार में
लौट कर आया तो घर भी रो पड़ा
है बहुत सीलन हर इक दीवार में
यूँ न हाँ में हाँ मिलाया कर मेरी,
लुत्फ़ आता है तेरे इन्कार में
Saturday 17 June 2017
चीड़ के फूल हैं गिरे हर सू
चीड़ के फूल हैं गिरे हर सू
और ये माज़ी के सिलसिले हर सू
सुस्त से पड़ गए सभी बादल
पर्वतों पर घिरे घिरे हर सू
उंघते आसमां के कैनवस पर
रंग कितने ही थे भरे हर सू
खींच कर धुंध का ये परदा सा
पेड़ सोये खड़े-खड़े हर सू
बाग़ है या है यह चुनर तेरी
फूल ही फूल हैं खिले हर सू
जाग कर भी वो ख़्वाब जारी है
जानेमन तू ही तू दिखे हर सू
इश्क़ जब से हुआ उसे तब से
देता फिरता है मशवरे हर सू
Sunday 21 May 2017
चाँद तुमने छिपा के रक्खा है
ग़ज़ल
बादलों में दबा के रक्खा है
चाँद तुमने छिपा के रक्खा है?
आज भी माँ ने घर में कानिश पर
मेरा बचपन सजा के रक्खा है
रेडियो सुन कहाँ रहा हूँ मैं
आदतन बस लगा के रक्खा है
छोड़ देता मैं नौकरी लेकिन
क़र्ज़ ने चुप बिठा के रक्खा है
इसको तस्वीर भर न समझो तुम
फ्रेम लम्हा करा के रक्खा है
लड़खड़ाने लगा है पर्वत भी
बोझ कितना उठा के रक्खा है
इश्क़ भी आजकल के बच्चों ने
एक फ़ैशन बना के रक्खा है
दिल में रौनक बनाये रखने को
एक बच्चा छिपा के रक्खा है
जल्द तय है मेरा बिगड़ जाना
आपने सिर चढ़ा के रक्खा है
आँख माँ की टिकी है रस्ते पर
और चूल्हा जला के रक्खा है
खेत के सामने, पहाड़ी पर,
अब्र किसने टिका के रक्खा है
नकुल गौतम, नाहन
Tuesday 28 March 2017
दिल को साहिब ख़ुद समझाना पड़ता है
एक ग़ज़ल कुछ अलग अंदाज़ में कोशिश की है
देखिये कैसी रही
ग़ज़ल
दिल को साहिब खुद समझाना पड़ता है
भैंस के आगे बीन बजाना पड़ता है
दुनियादारी की अपनी है मजबूरी
हर नाके पर टोल चुकाना पड़ता है
जीवन के इन उबड़ खाबड़ रस्तों पर
हल्का हल्का ब्रेक लगाना पड़ता है
झूट का क्या है खुद ही पकड़ा जायेगा
सच को लेकिन प्रूफ़ दिखाना पड़ता है
ज़िम्मेदारी है सब की अपनी अपनी
अपना अपना रोल निभाना पड़ता है
दिल का मैल दिखेगा आखिर कितनों को
घर के शीशों को चमकाना पड़ता है
अपनी अपनी ढफली है सब रिश्तों की
सबको अपना राग सुनाना पड़ता है
Thursday 9 March 2017
खेलें होली चलो इक नए रंग में
फ्रेम कर लें सजा कर लम्हे रंग में
खेलें होली चलो इक नए रंग में
हो गयी है पुरानी मुहब्बत मगर
हैं ये किस्से नये के नये रंग में
धूप सेंकें पहाड़ों की मुद्दत के बाद
कर लें माज़ी नया धूप के रंग में
उस पहाड़ी पे कैफ़े खुला है नया
चल मुहब्बत पियें चाय के रंग में
एक भँवरे ने बोसा लिया फूल का
झूम उठी डालियाँ मद भरे रंग में
प्रिज़्म शरमा न जाये तुझे देख कर
रंग मुझको दिखें सब तेरे रंग में
जब से बूढ़ी हुई, हो गयी तू खड़ूस
डेट पर ले चलूँ क्या तुझे रंग में
चल पकौड़े खिलाऊँ तुझे मॉल पर
औ' पुदीने की चटनी हरे रंग में
आज बच्चों ने ऐसे रँगा है मुझे
घोल कर हैं जवानी गए रंग में
हम गली पर टिकाये हुए थे नज़र
और बच्चे थे छत पर डटे रंग में
छोड़ बच्चे गये अपनी पिचकारियाँ
मेरा बचपन दिखाया मुझे रंग में
एक दिन के लिए छोड़ भी दो किचन
"आओ रँग दूँ तुम्हे इश्क़ के रंग में"
Monday 6 March 2017
यूँ सजाया है समुन्दर का किनारा किसने
ग़ज़ल
यूँ सजाया है समुन्दर का किनारा किसने
साथ मेरे है लिखा नाम तुम्हारा किसने
देखने में थे चरागों के सभी रखवाले फिर किया तेज़ हवाओं को इशारा किसनेआज रब ने हैं सुनी माँ की दुआएं शायद
चार टुकड़ों में बंटे घर को सँवारा किसने
मेरी तन्हाई कहीं रूठ न जाए मुझसे
दश्त में नाम मिरा ले के पुकारा किसने
इन सराबों को भला किसने बनाया होगा
"फिर मुझे रेत के दलदल में उतारा किसने"
मुझसे मिलने को जुटे हैं ये गली के पत्थर
मेरी आमद का दिया इनको इशारा किसने
कौन है जिसको मेरा दर्द नज़र आया है
यूँ बिलखती हुई नज़रों से निहारा किसने
कौन है अब भी मुझे दोस्त समझने वाला
दर्द को मेरे भला फिर से उभारा किसने
झूट का साथ तुझे देना पड़ा आखिरकार
भूत सच का ये तेरे सर से उतारा किसने
आज क़ातिल ने मेरे ख़ूब सताया मुझको
पूछता था की नकुल आपको मारा किसने
Saturday 18 February 2017
बेवकूफी बहुत बड़ी कर ली
हमने जब से ये आशिक़ी कर ली
कुछ अजब सी ये ज़िन्दगी कर ली
रास आने लगा ये सन्नाटा
ज्यूँ ही लफ़्ज़ों से दोस्ती कर ली
अश्क़ मेरे कहीं न सुन लें वो
मैंने आवाज़ कुछ कड़ी कर ली
देर उनको हुई थी, क्या कहता
मैने पीछे मेरी घड़ी कर ली
हम ज़रा नर्म क्या पड़े, उसने
अपनी आँखें बड़ी बड़ी कर ली
बाद मुद्दत फिर उनसे मिलना था
हमने माज़ी पे इस्तरी कर ली
नाम कोने पे लिख लिया उनका
पाक़ हमने ये डायरी कर ली
अस्ल ख़बरें तो दब गयीं हैं कहीं
इश्तिहारों ने फिर ठगी कर ली
"आँख में कुछ गिरा है" कह माँ ने
जज़्ब आँखों में इक नदी कर ली
आप छत पर चढ़े तो बादल से
चाँद ने कल कहासुनी कर ली
साथ सच के 'नकुल' खड़े होकर
बेवकूफी बहुत बड़ी कर ली
Sunday 5 February 2017
बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की
भाई शहरयार के मिसरे...
बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की
... पर मेरी एक कोशिश
ग़ज़ल
झड़ी जब लग रही हो आँसुओं की
कमी महसूस क्या हो बदलियों की
हवेली थी यहीं कुछ साल पहले
जुड़ी छत कह रही है इन घरों की
वो मुझपर मेह्रबां है आज क्यों यूँ
महक-सी आ रही है साज़िशों की
मुझे पहले महब्बत हो चुकी है
मुझे आदत है ऐसे हादिसों की
बिना बरसे ही खेतों से गुज़रना
"बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की"
फ़सल की क़ीमतें उछलेंगी अब के
ज़रा खींचो लगाम इन ख़्वाहिशों की
अदालत आ गए इंसाफ़ लेने
मती मारी गयी थी मुफ़लिसों की
चले हैं जंग लड़ने दोपहर में
ज़रा हिम्मत तो देखो जुगनुओं की
ह्वमारा वक़्त भी अब आता होगा
'नकुल' बस देर है अच्छे दिनों की
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