जे लो दुनिया की बातों में आ कर गलती की हमने सब सच सच बतला कर गलती की वो मेरी खामोशी खूब समझता था मैंने बातों में उलझा कर गलती की एक अरसे के बाद मिली थी कुछ फुर्सत हमने उनको फोन लगा कर गलती की तन्हाई भी अब तनहा सी लगती है घर से वो तस्वीर हटाकर गलती की उनकी फितरत से पहले ही वाकिफ थे हमने ही तो हाथ बढ़ा कर गलती की धीरे धीरे ख़ुद जैसा ही कर डाला हमने बच्चों को समझा कर गलती की सहराओं को खुद ही कुछ करना होगा बादल से उम्मीद लगाकर गलती की भद्दी सी तस्वीर लगाना काफी था ग़ज़लों पर दिन रात खपा कर गलती की उसका राह बदल कर जाना वाजिब था हमने ही आवाज़ लगाकर गलती की लोग दिखावा करने में भी माहिर थे हमने भी जज़्बात में आ कर गलती की
Monday 23 September 2019
हमने सब सच सच बतला कर गलती की
Tuesday 30 April 2019
शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया
तक़दीर ने मज़ाक बड़े से बड़ा किया शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया जिस ने मेरी वफ़ा पर उठाये कई सवाल मैंने उसी से इश्क़ कई मर्तबा किया बच्चे तो लड़ झगड़ के दोबारा गले लगे बेकार ही बड़ों ने तमाशा खड़ा किया मौसम चुनाव का है ग़ज़ल इश्क़ पर हुई हमको सुकून है कि चलो कुछ नया किया बेवक्त चार लोग अयादत को आ गये बेवज्ह चाय का भी मज़ा किरकिरा किया आखिर उसी की रायशुमारी बचा सकी हमने तमाम उम्र जिसे अनसुना किया कुछ देर को मुझे तो हुआ ही नहीं यक़ीन उसने गले लगा के यूँ हैरतज़दा किया मैं अपनी ख्वाहिशों से परेशान था मगर फिर भी मेरे हिसाब से जितना हुआ, किया
Wednesday 3 April 2019
ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं
ग़ज़ल जो कभी पूरी नहीं हुई ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं नखरे तेज़ हवा के बढ़ते रहते हैं आंखों में जब ख़्वाब पनपता है कोई इनके काले घेरे बढ़ते रहते हैं माज़ी में कुछ ढूंढ रहे होते हैं हम बस कहने को आगे बढ़ते रहते हैं जैसे जैसे जेब सम्हलती है यारो चोरी चोरी खर्चे बढ़ते रहते हैं हिज्र का अरसा साँसों में नापा करिये दिन तो अक़्सर घटते बढ़ते रहते हैं कुछ भूखों की आस लियेे फुटपाथों पर मजबूरी के ठेले बढ़ते रहते हैं कतरी जाती हैं जिनकी मरियल शाखें गुलशन केे वो पौधे बढ़ते रहते हैं
Monday 1 April 2019
वक़्त मुझको हरा नहीं पाया
फल दरख्तों के मोल ले आया कैसे लाता मगर घनी छाया एक सूरत ने यूँ गज़ब ढाया उम्र भर होश फिर नहीं आया अपनी तकदीर पर हँसी आयी ज़िक्र जब भी कहीं तेरा आया बुनता रहता है झुर्रियाँ हर पल वक़्त होता नहीं कभी ज़ाया हमने कल देर तक ठहाकों से अपने ज़ख्मों को खूब सहलाया आज भी साथ साथ चलता है कितना मासूम है मेरा साया कैसे पहचानता ज़माने को मैं जो ख़ुद को समझ नहीं पाया वक़्त ख़ुद के लिये मिला हो मुझे वक़्त ऐसा कभी नहीं आया एक उम्मीद सी बची है अभी आज भी डाकिया नहीं आया आख़िरश हार मान ली मैंने वक़्त मुझको हरा नहीं पाया
Saturday 30 March 2019
पहाड़ों से
अब है जब सामना पहाड़ों से, माँग कोई दुआ पहाडों से। जब किया मश्विरा पहाड़ों से, रास्ता मिल गया पहाड़ों से। रास्ता तंग है ज़रा लेकिन, रास्ता है सजा पहाड़ों से। साथ ताउम्र थे समुंदर के, इश्क़ ताउम्र था पहाड़ों से। चाह कर भी कभी नहीं लौटा, शहर जो भी गया पहाड़ों से। मुश्किलें भी मिली पहाड़ों पर, हौंसला भी मिला पहाड़ों से। एक मीठी नदी निकलती है, ख़ुश्क पत्थर नुमा पहाड़ों से। बादलों ने कहा न जाने क्या, चाँद छुपने लगा पहाड़ों से। लौट आऊँगा मौत से पहले, है ये वादा मेरा पहाड़ों से। खेत बेरोज़गार हैं जब से कारखाना सटा पहाड़ों से
Sunday 10 March 2019
दो ग़ज़ला
------1 जब तक न लौट आयें परिंदे उड़ान से लगते हैं घोंसले ये मेरे ही मकान से अब चाशनी का बोझ उतारें ज़बान से तलवार जब निकल ही चुकी है मियान से आये थे गमगुसार लिये ज़ख्म की दवा घबरा गये अगरचे पुराने निशान से दफ़्तर से लौटते हैं मुलाज़िम बुझे बुझे पत्थर लुढ़क रहे हों कि जैसे ढलान से बाज़ार में तो खूब है कीमत अनाज की मत पूछियेगा फिर भी कमाई किसान से बरसों से वज़्न झूट का तारी है रूह पर तकलीफ़ हो रही है तभी तो अज़ान से
2212 1211 2212 12
ताउम्र भागते थे जो दौलत बटोरते
सोये हुए हैं देखिये सब इत्मीनान से
जंगल पहाड़ बर्फ़ समंदर नदी हवा क्या खूब मौजज़े हैं घिरे आसमान से घर से हटा तो लोगे सभी आईने मगर कब तक बचे रहोगे नकुल इम्तिहान से -----2 दो पल जो देख लूँ मैं उन्हे इत्मिनान से मिल जाये कुछ निजात मुसलसल थकान से उसने नज़र उठा के झुकायी ज़रूर थी पर फिर पलट गयीं थी निगाहें बयान से भँवरे उदास उदास हैं मायूस हैं ग़ुलाब हो कर ख़फ़ा गये थे वो कल गुलसितान से वादों की कोई फिक्र न मिलने का इंतज़ार दिल जब लगा लिया हो किसी बेईमान से मुझ से मेरे ग़मों पे सवालात छोड़िये ऊंचाई पूछिये ना कभी आसमान से गलती से उसने फोन मिलाया था कल् मुझे पूछे न हाल कोई दिले बेज़ुबान से सुर्खी ये शर्म से है कि गुस्से का है कमाल मिलती है शक्ल देखिये ज़ीनत अमान से लिखकर उन्हें जो पोस्ट किये ही नहीं कभी रक्खे हुए हैं ख़त वो किताबों में शान से
Tuesday 15 January 2019
आज़ाद नज़्म
गली के दूसरे कोने में जब इक बाँसुरी वाला कभी बंसी बजाता है तो ये मालूम होता है कि दुन्या खूबसूरत है कि जैसे ख़्वाब हो कोई मगर जब बाँसुरी वाला सुरों में चूक जाता है बदल देता है धुन जब भी किसी मशहूर गाने की तो लगता है हक़ीक़त है मैं अक्सर सोचता हूँ क्यों ख़ुदा भी चूक जाता है बहुत से सुर लगाने में धुन अच्छी सी बनाने में कईं मन्ज़र सजाने में जब उस से भूल होती है तो कितना दर्द होता है अगर तुम जानना चाहो तो बस अखबार पढ़ लेना या उस बच्चे से मिल लेना कि दिल में छेद हो जिसके और उसकी माँ उसे खुल कर कभी हँसने नहीं देती
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