तक़दीर ने मज़ाक बड़े से बड़ा किया शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया जिस ने मेरी वफ़ा पर उठाये कई सवाल मैंने उसी से इश्क़ कई मर्तबा किया बच्चे तो लड़ झगड़ के दोबारा गले लगे बेकार ही बड़ों ने तमाशा खड़ा किया मौसम चुनाव का है ग़ज़ल इश्क़ पर हुई हमको सुकून है कि चलो कुछ नया किया बेवक्त चार लोग अयादत को आ गये बेवज्ह चाय का भी मज़ा किरकिरा किया आखिर उसी की रायशुमारी बचा सकी हमने तमाम उम्र जिसे अनसुना किया कुछ देर को मुझे तो हुआ ही नहीं यक़ीन उसने गले लगा के यूँ हैरतज़दा किया मैं अपनी ख्वाहिशों से परेशान था मगर फिर भी मेरे हिसाब से जितना हुआ, किया
Tuesday 30 April 2019
शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया
Wednesday 3 April 2019
ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं
ग़ज़ल जो कभी पूरी नहीं हुई ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं नखरे तेज़ हवा के बढ़ते रहते हैं आंखों में जब ख़्वाब पनपता है कोई इनके काले घेरे बढ़ते रहते हैं माज़ी में कुछ ढूंढ रहे होते हैं हम बस कहने को आगे बढ़ते रहते हैं जैसे जैसे जेब सम्हलती है यारो चोरी चोरी खर्चे बढ़ते रहते हैं हिज्र का अरसा साँसों में नापा करिये दिन तो अक़्सर घटते बढ़ते रहते हैं कुछ भूखों की आस लियेे फुटपाथों पर मजबूरी के ठेले बढ़ते रहते हैं कतरी जाती हैं जिनकी मरियल शाखें गुलशन केे वो पौधे बढ़ते रहते हैं
Monday 1 April 2019
वक़्त मुझको हरा नहीं पाया
फल दरख्तों के मोल ले आया कैसे लाता मगर घनी छाया एक सूरत ने यूँ गज़ब ढाया उम्र भर होश फिर नहीं आया अपनी तकदीर पर हँसी आयी ज़िक्र जब भी कहीं तेरा आया बुनता रहता है झुर्रियाँ हर पल वक़्त होता नहीं कभी ज़ाया हमने कल देर तक ठहाकों से अपने ज़ख्मों को खूब सहलाया आज भी साथ साथ चलता है कितना मासूम है मेरा साया कैसे पहचानता ज़माने को मैं जो ख़ुद को समझ नहीं पाया वक़्त ख़ुद के लिये मिला हो मुझे वक़्त ऐसा कभी नहीं आया एक उम्मीद सी बची है अभी आज भी डाकिया नहीं आया आख़िरश हार मान ली मैंने वक़्त मुझको हरा नहीं पाया
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