Tuesday 30 April 2019

शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया



तक़दीर ने मज़ाक बड़े से बड़ा किया
शिकवा किया न मैंने कभी कुछ गिला किया

जिस ने मेरी वफ़ा पर उठाये कई सवाल
मैंने उसी से इश्क़ कई मर्तबा किया

बच्चे तो लड़ झगड़ के दोबारा गले लगे
बेकार ही बड़ों ने तमाशा खड़ा किया

मौसम चुनाव का है ग़ज़ल इश्क़ पर हुई
हमको सुकून है कि चलो कुछ नया किया

बेवक्त चार लोग अयादत को आ गये
बेवज्ह चाय का भी मज़ा किरकिरा किया

आखिर उसी की रायशुमारी बचा सकी
 हमने तमाम उम्र जिसे अनसुना किया

कुछ देर को मुझे तो हुआ ही नहीं यक़ीन
उसने गले लगा के यूँ हैरतज़दा किया

मैं अपनी ख्वाहिशों से परेशान था मगर
फिर भी मेरे हिसाब से जितना हुआ, किया

Wednesday 3 April 2019

ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं


ग़ज़ल जो कभी पूरी नहीं हुई

ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं
नखरे तेज़ हवा के बढ़ते रहते हैं

आंखों में जब ख़्वाब पनपता है कोई
इनके काले घेरे बढ़ते रहते हैं

माज़ी में कुछ ढूंढ रहे होते हैं हम
बस कहने को आगे बढ़ते रहते हैं

जैसे जैसे जेब सम्हलती है यारो
चोरी चोरी खर्चे बढ़ते रहते हैं

हिज्र का अरसा साँसों में नापा करिये
दिन तो अक़्सर घटते बढ़ते रहते हैं

कुछ भूखों की आस लियेे फुटपाथों पर 
मजबूरी के ठेले बढ़ते रहते हैं

कतरी जाती हैं जिनकी मरियल शाखें
गुलशन केे वो  पौधे बढ़ते रहते हैं



Monday 1 April 2019

वक़्त मुझको हरा नहीं पाया



फल दरख्तों के  मोल ले आया
कैसे लाता मगर घनी छाया

एक सूरत ने यूँ गज़ब ढाया
उम्र भर होश फिर नहीं आया

अपनी तकदीर पर हँसी आयी
ज़िक्र जब भी कहीं तेरा आया

बुनता रहता है झुर्रियाँ हर पल 
वक़्त होता नहीं कभी ज़ाया

हमने कल देर तक ठहाकों से
अपने ज़ख्मों को खूब सहलाया

आज भी साथ साथ चलता है
कितना मासूम है मेरा साया

कैसे पहचानता ज़माने को
मैं जो ख़ुद को समझ नहीं पाया

वक़्त ख़ुद के लिये मिला हो मुझे
वक़्त ऐसा कभी नहीं आया

एक उम्मीद सी बची है अभी
आज भी डाकिया नहीं आया

आख़िरश हार मान ली मैंने
वक़्त मुझको हरा नहीं पाया