Friday 18 November 2016

नज़्म: फूल नीले


आज़ाद नज़्म


फूल नीले इस गली में
आज भी खिलते हैं लेकिन
अब नहीं वो बात इनमें
अब महक वैसी नहीं है
मैं न कहता था कि इनकी
ये महक असली नहीं है।

ले गयीं हो तुम महक भी
साथ अपने
इस गली से उस गली में

सच कहूँ!
बादे सबा भी
अब नहीं लगती है ताज़ा।
हैं बहुत मायूस झौंके।
और यह खिड़की भी देखो
अब नहीं खुलती ख़ुशी से

ले गयीं मुस्कान इनकी
साथ अपने
इस गली से उस गली में

लॉन अब भी ख़ुश्क सा है
ओस भी पड़ती नहीं अब
चाँदनी जाने से पहले
घास भी रोती है शायद
सुब्ह नंगे पाँव इस पर
तुम नहीं चलती हो जब से

ले गयी हो शबनमी एहसास भी तुम
साथ अपने
इस गली से उस गली में

Monday 7 November 2016

लुटेरे मॉल सज-धज कर खड़े हैं


आदरणीय पंकज सुबीर sir के ब्लॉग पर दीवाली के तरही मुशायरे में मेरी हज़ल


लुटेरे मॉल सज-धज कर खड़े हैं
सनम दीपावली के दिन चले हैं

लगी दीपावली की सेल जब से
मेरी बेग़म के अच्छे दिन हुए हैं

मेरे बटुए का बी.पी. बढ़ रहा है
मेरे बच्चे खिलौने चुन रहे हैं

सफाई में लगी हैं जब से बेग़म
सभी फनकार तरही में लगे हैं

तरन्नुम में सुना दी सब ने गज़लें,
मगर हम क्या करें जो बेसुरे हैं

कहाँ थूकें भला अब पान खा कर
सभी फुटपाथ फूलों से सजे हैं

यक़ीनन आज फिर होगी धुलाई
गटर में आज फिर पी कर गिरे हैं

नहीं दफ़्तर में रुकता देर तक अब
मेरे बेगम ने जब से नट कसे हैं

इन्हें खोजेंगे कमरे में नवासे
छिपा कर आम नानी ने रखे हैं

चलो छोड़ो जवानी के ये किस्से
'नकुल' अब हम भी बूढ़े हो चले हैं

Wednesday 5 October 2016

रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर


करता है बात अम्न की अक्सर लपेटकर
रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर

हर रोज़ घूमता है कड़ी धूप में फ़क़ीर
तावीज़ बेचता है मुक़द्दर लपेटकर

उसने कही ग़ज़ल कि निचोड़ा है दिल कोई
कागज़ में रख दिया है समन्दर लपेटकर

जो अश्क पोंछने को दिया था उसे रुमाल
रखता है अब फ़रेब का पत्थर लपेटकर

ओढ़ी रजाई बर्फ़ की बूढ़े पहाड़ ने
रक्खी है जब से धूप की चद्दर लपेट कर

शायद क़लम में फिट है कहीं कैमरा कोई
ऐसे उतारता है वो मन्ज़र लपेट कर

बादल गुज़र रहे हैं दबे पैर गाँव से
माँ ने रखे हैं धूप में बिस्तर लपेटकर

इस डायरी को बन्द ही रहने दो अब 'नकुल'
है थक के सोई बाँह क़लम पर लपेटकर

Wednesday 21 September 2016

ज़िक्र होता है मगर अक्सर तेरा


अब मेरे दिल में नहीं है घर तेरा
ज़िक्र होता है मगर अक्सर तेरा

हाँ! ये माना है मुनासिब डर तेरा
आदतन नाम आ गया लब पर तेरा

भूल तो जाऊँ तुझे पर क्या करूँ
उँगलियों को याद है नम्बर तेरा

कर गया ज़ाहिर तेरी मजबूरियां
टाल देना बात यूँ हँस कर तेरा

शुक्र है! आया है पतझड़ लौट कर
बाग़ से दिखने लगा फिर घर तेरा

वो मुलाक़ात आख़िरी क्या खूब थी
भूल जाना लाश में खंजर तेरा

कोई बतलाये अगर मैं हूँ किधर
तब तो शायद बन सकूँ रहबर तेरा

हैं क़लम की भी तो कुछ मजबूरियाँ
थक गया हूँ नाम लिख लिख कर तेरा

बावरेपन की 'नकुल' अब हद हुई
इश्क़ उसको? वो भी मुझसे ? सर तेरा!

Monday 15 August 2016

हिचकियों ने कल सताया देर तक


ज़ुल्म मुझ पर उसने ढाया देर तक
हिचकियों ने कल सताया देर तक

बाग़ में ताज़ा कली को देख कर
एक भँवरा गुनगुनाया देर तक

कल अमावस हो गयी पूनम हुज़ूर
चाँद छत पर मुस्कुराया देर तक

मोर ने अंगड़ाइयाँ जब खुल के लीं
मेघ ने मल्हार गाया देर तक

कल तेरी तसवीर से बातें हुईं
हालेदिल मैंने सुनाया देर तक

ख़्वाब में भी कल वो आये देर से
सब्र मेरा आज़माया देर तक

याद रखने की हिदायत दे गया
लौट कर जो ख़ुद न आया देर तक

Saturday 11 June 2016

तेरी हाँ में हाँ न मिला सका

1 दिसम्बर 2016 के दैनिक जागरण के अभिनव पृष्ठ पर मेरी इस ग़ज़ल को स्थान मिला। आदरणीय नवनीत जी की मुहब्बत मिली तो मेरी यह कोशिश सफ़ल हुई


न तो झूट मैंने कहा कभी न ही सच का साथ निभा सका
मेरी हार का है सबब कि मैं तेरी हाँ में हाँ न मिला सका

मैं था जिसका अरसे से मुन्तज़िर वो मिला हो जैसे इक अजनबी
न तो बात उस से हुई कोई न गले उसे मैं लगा सका

कभी पढ़ के इन को मैं रो लिया कभी रख के सीने पे सो लिया
न ये चिट्ठियां मैं जला सका न किसी नदी में बहा सका

न बयान उन से हुआ कभी न ही दर्द दिल का छिपा कभी
न रुमाल उन को दिखा सका न ही अश्क उन से छिपा सका

थी बनाई मैंने भी कश्तियां तेरे साथ जीने के ख्वाब की
जो बढ़ा गयीं मेरी तिश्नगी मैं वो बारिशें न भुला सका

ये हरे शजर हों कि बदलियाँ वो नदी वो बर्फ पहाड़ पर
हैं तुम्हारी लिक्खी इबारतें कोई पढ़ सका न मिटा सका

Tuesday 1 March 2016

इज़्तिराबी अज़ाब की सी है


लफ्ज़ पोर्टल की 28वीं तरही में मेरी कोशिश हज़रते मीर तक़ी 'मीर' के मिसरे पर


इज़्तिराबी अज़ाब की सी है
उन से दूरी सराब की सी है

शायरी बिन तेरे तस्सव्वुर के
ख़ाली बोतल शराब की सी है

लब झिझकते हैं उसको छूने में
“पंखुड़ी इक ग़ुलाब की सी है”

सादगी से सजी तेरी सूरत
इक ग़ज़ल की किताब की सी है

ज़िन्दगी में कमी है लम्हों की
डायरी घर-हिसाब की सी है

उस इमारत की नींव में पीपल
इब्तिदा इंक़लाब की सी है

सिर्फ़ दीदार से नहीं भरता
दिल की फ़ितरत नवाब की सी है

Wednesday 10 February 2016

हज़ल


हज़ल

सरे राह बारिश में छाता उड़ा कर तेरा भीग जाना गज़ब हो गया
जो होली के दिन भी नहीं थी नहाती तेरा कल नहाना गज़ब हो गया

तेरे सुर्ख़ होंठों पे ये मुस्कुराहट, नज़रबट्टुओं की हो जैसे बनावट
लहू पी के आई हो जैसे कहीं से, तेरा पान खाना गज़ब हो गया

खुली ज़ुल्फ़ है या हैं काली घटायें, जुओं का क़बीला तुझे दे दुआयें
ऐ मेरे मोहल्ले की सन्नी लियोनी, तेरा सर खुजाना गज़ब हो गया

वही क़ाफ़िये हैं वही ज़ाविये हैं, ज़मीनें हमारी क़िले आपके हैं
हमारी ग़ज़ल ही का मक़्ता बदल के हमीं को सुनाना गज़ब हो गया

मुहब्बत की बारिश का कैसा असर है, जिसे भी मैं देखूँ वही तर-ब-तर है
बुढ़ापे की दहलीज़ पर ऐसे-ऐसे मेरा गुल खिलाना गज़ब हो गया