Saturday 4 July 2015

मुक़ाबले में फिर से हार हो गयी पगार की


लफ्ज़ पोर्टल की २४वीं तरही में मेरी कोशिश


मुक़ाबले में फिर से हार हो गयी पगार की
दिहाड़ियां ग़ुलाम हो के रह गयीं उधार की

जवान उस ग़रीब की हुई हैं जब से बेटियां
पड़ी है भारी ‘सौ लुहार की’ पे ‘इक सुनार की’

उस ऊंघती गली में दफ़अतन वो उनसे सामना
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”

सज़ा में है मिली हमें ये बेवफ़ाई दोस्तो
ख़ता वफ़ा की आदतन जो हमने बार-बार की

दुआ-सलाम, हाल-चाल पूछना तो छोड़िये,
अब उनकी इक झलक भी बात है कभी-कभार की

पहाड़ छोड़ कर ज़ुबान शह्र की तो हो गयी,
है रूह में महक मगर अभी भी देवदार की

इमारतों के मौसमों में बाग़बाँ भी क्या करे?
लगा रहा है बेबसी में क़ीमतें बहार की

घड़ी भी थक के रुक चुकी है, राह भी है सो गयी
कटेगी कैसे अब ‘नकुल’ घड़ी ये इंतज़ार की