Monday, 17 March 2025

ग़ज़ल - मुझको मेरे फ़र्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है

 मुझको मेरे फ़र्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है

साफ़ कहें तो क़र्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है


सब कहते हैं इश्क़ बुरी है बीमारी

मुझको तो इस मर्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है


गा कर उसने इक दिन शेर सुनाया था

मुझको उस की तर्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है


 चाहत की फेहरिस्तें ख़त्म नहीं होती

यार! दिले ख़ुदग़र्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है


उसने मुझको चाय पिलाई थी इक दिन

बाकी खाते दर्ज़ ने ज़िन्दा रक्खा है

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