हम जो आदी हुए अज़ाबों के
इश्क़ में पड़ गए हबाबों के
फूल भी फोन के कवर में हैं
अब ज़माने नहीं किताबों के
हमने पूछे नहीं सवाल अब तक
हैं मगर आस में जवाबों के
तेरी जुल्फों को छू न पाए जो,
पूछिए दर्द उन गुलाबों के
मेरा किरदार खो गया शायद
दरमियां खुश फ़हम निसाबों के
हाथ छलनी हैं साँस भारी है
हम तलबगार हैं गुलाबों के
क्या ही दरियाओं का करेंगे हम
हम जो शौक़ीन हैं सराबों के
तुम न लौटोगे जानते हैं हम
मुन्तज़िर हैं तुम्हारे ख्वाबों के
नकुल
No comments:
Post a Comment