Monday 1 April 2019

वक़्त मुझको हरा नहीं पाया



फल दरख्तों के  मोल ले आया
कैसे लाता मगर घनी छाया

एक सूरत ने यूँ गज़ब ढाया
उम्र भर होश फिर नहीं आया

अपनी तकदीर पर हँसी आयी
ज़िक्र जब भी कहीं तेरा आया

बुनता रहता है झुर्रियाँ हर पल 
वक़्त होता नहीं कभी ज़ाया

हमने कल देर तक ठहाकों से
अपने ज़ख्मों को खूब सहलाया

आज भी साथ साथ चलता है
कितना मासूम है मेरा साया

कैसे पहचानता ज़माने को
मैं जो ख़ुद को समझ नहीं पाया

वक़्त ख़ुद के लिये मिला हो मुझे
वक़्त ऐसा कभी नहीं आया

एक उम्मीद सी बची है अभी
आज भी डाकिया नहीं आया

आख़िरश हार मान ली मैंने
वक़्त मुझको हरा नहीं पाया

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