फल दरख्तों के मोल ले आया कैसे लाता मगर घनी छाया एक सूरत ने यूँ गज़ब ढाया उम्र भर होश फिर नहीं आया अपनी तकदीर पर हँसी आयी ज़िक्र जब भी कहीं तेरा आया बुनता रहता है झुर्रियाँ हर पल वक़्त होता नहीं कभी ज़ाया हमने कल देर तक ठहाकों से अपने ज़ख्मों को खूब सहलाया आज भी साथ साथ चलता है कितना मासूम है मेरा साया कैसे पहचानता ज़माने को मैं जो ख़ुद को समझ नहीं पाया वक़्त ख़ुद के लिये मिला हो मुझे वक़्त ऐसा कभी नहीं आया एक उम्मीद सी बची है अभी आज भी डाकिया नहीं आया आख़िरश हार मान ली मैंने वक़्त मुझको हरा नहीं पाया
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