Wednesday, 3 April 2019

ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं


ग़ज़ल जो कभी पूरी नहीं हुई

ज्यों ज्यों घर केे पर्दे बढ़ते रहते हैं
नखरे तेज़ हवा के बढ़ते रहते हैं

आंखों में जब ख़्वाब पनपता है कोई
इनके काले घेरे बढ़ते रहते हैं

माज़ी में कुछ ढूंढ रहे होते हैं हम
बस कहने को आगे बढ़ते रहते हैं

जैसे जैसे जेब सम्हलती है यारो
चोरी चोरी खर्चे बढ़ते रहते हैं

हिज्र का अरसा साँसों में नापा करिये
दिन तो अक़्सर घटते बढ़ते रहते हैं

कुछ भूखों की आस लियेे फुटपाथों पर 
मजबूरी के ठेले बढ़ते रहते हैं

कतरी जाती हैं जिनकी मरियल शाखें
गुलशन केे वो  पौधे बढ़ते रहते हैं



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