Friday 10 December 2021

कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक

 


कहीं बेचैन से दीपक कहीं हैं सिरफिरे दीपक

किसी ज़िद्दी से आशिक़ की तरह शब भर जले दीपक


मुखालिफ़ हैं बुराई के सभी घर-घर डटे दीपक

"उजाले के मुहाफ़िज़ हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक"


है मिट्टी ही मगर गुज़री है कूज़ागर के हाथों से

कोई मूरत हुई तेरी तो कुछ से बन गए दीपक


न अंधेरे में शिद्दत है न परवाने जुनूनी हैं

भला किसके लिये अब इन हवाओं से लड़े दीपक


है दीवाली बहाना शहर से बच्चों के आने का

सजा रक्खे हैं नानी ने कई छोटे बड़े दीपक


हुई मुद्दत की शब भर घी पिलाती थी इन्हें अम्मा

लगें बीमार अब झालर की रौनक से दबे दीपक


किसी शाइर के मन में रात दिन पकते खयालों से

किसी को रौशनी देंगे ये भट्ठी में पके दीपक


भरे बाज़ार थे हर सू फिरंगी लालटेनों से

दिलेरी से पुराने चौक पर मुस्तैद थे दीपक









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