भाई शहरयार के मिसरे...
बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की
... पर मेरी एक कोशिश
ग़ज़ल
झड़ी जब लग रही हो आँसुओं की
कमी महसूस क्या हो बदलियों की
हवेली थी यहीं कुछ साल पहले
जुड़ी छत कह रही है इन घरों की
वो मुझपर मेह्रबां है आज क्यों यूँ
महक-सी आ रही है साज़िशों की
मुझे पहले महब्बत हो चुकी है
मुझे आदत है ऐसे हादिसों की
बिना बरसे ही खेतों से गुज़रना
"बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की"
फ़सल की क़ीमतें उछलेंगी अब के
ज़रा खींचो लगाम इन ख़्वाहिशों की
अदालत आ गए इंसाफ़ लेने
मती मारी गयी थी मुफ़लिसों की
चले हैं जंग लड़ने दोपहर में
ज़रा हिम्मत तो देखो जुगनुओं की
ह्वमारा वक़्त भी अब आता होगा
'नकुल' बस देर है अच्छे दिनों की
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