Saturday, 18 February 2017

बेवकूफी बहुत बड़ी कर ली


हमने जब से ये आशिक़ी कर ली
कुछ अजब सी ये ज़िन्दगी कर ली

रास आने लगा ये सन्नाटा
ज्यूँ ही लफ़्ज़ों से दोस्ती कर ली

अश्क़ मेरे कहीं न सुन लें वो
मैंने आवाज़ कुछ कड़ी कर ली

देर उनको हुई थी, क्या कहता
मैने पीछे मेरी घड़ी कर ली

हम ज़रा नर्म क्या पड़े, उसने
अपनी आँखें बड़ी बड़ी कर ली

बाद मुद्दत फिर उनसे मिलना था
हमने माज़ी पे इस्तरी कर ली

नाम कोने पे लिख लिया उनका
पाक़ हमने ये डायरी कर ली

अस्ल ख़बरें तो दब गयीं हैं कहीं
इश्तिहारों ने फिर ठगी कर ली

"आँख में कुछ गिरा है" कह माँ ने
जज़्ब आँखों में इक नदी कर ली

आप छत पर चढ़े तो बादल से
चाँद ने कल कहासुनी कर ली

साथ सच के 'नकुल' खड़े होकर
बेवकूफी बहुत बड़ी कर ली


Sunday, 5 February 2017

बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की


भाई शहरयार के मिसरे...

बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की

... पर मेरी एक कोशिश


ग़ज़ल

झड़ी जब लग रही हो आँसुओं की
कमी महसूस क्या हो बदलियों की

हवेली थी यहीं कुछ साल पहले
जुड़ी छत कह रही है इन घरों की

वो मुझपर मेह्रबां है आज क्यों यूँ
महक-सी आ रही है साज़िशों की

मुझे पहले महब्बत हो चुकी है
मुझे आदत है ऐसे हादिसों की

बिना बरसे ही खेतों से गुज़रना
"बहुत मजबूरियाँ हैं बादलों की"

फ़सल की क़ीमतें उछलेंगी अब के
ज़रा खींचो लगाम इन ख़्वाहिशों की

अदालत आ गए इंसाफ़ लेने
मती मारी गयी थी मुफ़लिसों की

चले हैं जंग लड़ने दोपहर में
ज़रा हिम्मत तो देखो जुगनुओं की

ह्वमारा वक़्त भी अब आता होगा
'नकुल' बस देर है अच्छे दिनों की