Sunday 7 June 2020

ग़ज़ल हो गयी सो हो गयी



1212 1212 1212 112(22)
ऐसी कोई बह्र नहीं है
लेकिन ग़ज़ल हो गयी सो हो गयी


तुम्ही कहो रहें तो कैसे इत्मिनान से हम
कि खुल के सच भी कह सकें न जब ज़ुबान से हम

कई दिनों से इक ख़याल तक नहीं आया
पड़े हैं खाली इक किराये के मकान से हम

किसी ने मोड़ कर वरक हो जैसे छोड़ दिया
भुलाये जा चुके हों जैसे दास्तान से हम

उड़ान पर नहीं गये कि हम ख़लिश में थे
ये सोच कर कि क्या कहेंगे आसमान से हम

किसी को हो न हो उन्हें यक़ीन है हम पर
कई बरस तो ख़ुश रहे इसी गुमान से हम

ये ज़ख्मे दिल तुम्हे दिखायी तो नहीं देंगे
कई दिनों से हैं मगर लहू-लुहान से हम

हमें तो ख़ुद पे कुछ दिनों से ऐतबार नहीं
उमीद क्या करें वफ़ा की इस जहान से हम

चलो 'नकुल' सफ़र पे फिर कहीं निकल जायें
कि अब तो ऊब से गये हैं रूह-दान से हम

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