Wednesday 5 October 2016

रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर


करता है बात अम्न की अक्सर लपेटकर
रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर

हर रोज़ घूमता है कड़ी धूप में फ़क़ीर
तावीज़ बेचता है मुक़द्दर लपेटकर

उसने कही ग़ज़ल कि निचोड़ा है दिल कोई
कागज़ में रख दिया है समन्दर लपेटकर

जो अश्क पोंछने को दिया था उसे रुमाल
रखता है अब फ़रेब का पत्थर लपेटकर

ओढ़ी रजाई बर्फ़ की बूढ़े पहाड़ ने
रक्खी है जब से धूप की चद्दर लपेट कर

शायद क़लम में फिट है कहीं कैमरा कोई
ऐसे उतारता है वो मन्ज़र लपेट कर

बादल गुज़र रहे हैं दबे पैर गाँव से
माँ ने रखे हैं धूप में बिस्तर लपेटकर

इस डायरी को बन्द ही रहने दो अब 'नकुल'
है थक के सोई बाँह क़लम पर लपेटकर

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