माना वो दौर लौट के आया नहीं कभी हमने भी डायरी को जलाया नहीं कभी यूँ तो किसी भी ग़म से मेरे ग़म भी कम न थे बाज़ार में अगरचे सजाया नहीं कभी रहती है अब उदास मेरे घर की क्रौकरी फिर तुमकोे चाय पर जो बुलाया नहीं कभी कुछ तो छुपा रहा है पसे अक़्स आइना हमने तो कुछ भी इससे छुपाया नहीं कभी ऐसा अगर है इश्क़ तो क्या ख़ाक इश्क़ है कहते हैं बारिशों ने रुलाया नहीं कभी कीचड़ में भी खिलें तो महकते हैं शान से, फूलों ने पर ग़ुरूर दिखाया नहीं कभी यूँ तो शरीफ़ लोग मिले शह्र में कईं सच का किसी ने साथ निभाया नहीं कभी मेरे लिए रुकी थी कईं बार ज़िन्दगी मैंने ही अपना हाथ बढ़ाया नहीं कभी कागज़ के उन हवाई जहाज़ों का क्या कुसूर शिद्दत से हमने जिनको उड़ाया नहीं कभी सहरा नहीं ये दिल है मिरा इंतज़ार में पौधा यहाँ किसी ने लगाया नहीं कभी शायद ज़ुबां हमारी कभी लड़खड़ाई हो लेकिन ज़मीर हमने गिराया नहीं कभी
Saturday 7 October 2017
नहीं कभी
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